आलोचना >> काव्य कवि-कर्म : सत्तरोत्तरी हिन्दी कविता काव्य कवि-कर्म : सत्तरोत्तरी हिन्दी कविताए एम मुरलीधरन
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यह पहली पुस्तक है जिसमें हिन्दी काव्य साहित्य को राष्ट्रीय दृष्टि से विवेचि किया गया है। विचारधाराओं के दबाव और संगठनों के नजरिये से मुक्त होकर किया गया सटीक विश्लेषण इसे छात्रों के लिए ही नहीं अध्यापकों के लिए भी उपयोगी बनाता है
डॉ. मुरलीधरन की यह पुस्तक जहाँ एक ओर खड़ी बोली में लिखी कविताओं का संक्षिप्त परंतु सुचिंतित इतिहास है वहीं सत्तर के बाद की कविताओं का गंभीर विवेचन भी है। कविता और कविकर्म की सारगर्भित परिभाषा के साथ ही साथ सत्तर के दशक की कविता के कुल और शील का व्यापक विवरण भी इसमें है। यह कार्य एक अभाव की पूर्ति करता है। साठोत्तरी कविता के अवशेषों का उल्लेख करते हुए लेखक ने सत्तर के दशक के मोहभंग जन्य खीझ, आक्रोश, विक्षोभ, विसंगति, संत्रास, अराजकता, राजनैतिक परिवर्तन की आकांक्षा और उलटफेर की आवश्यकता की प्रतीति को सप्रमाण रेखांकित किया है। इस पुसतक की प्रमुख विशेषता है कि इसमें वैदुषिक दृष्टि से उपलब्ध सभी कवियों की कृतियों को विश्लेषण के लिए चुना गया है। जिसके कारण इस मूल्यांकन का महत्त्व बढ़ गया है। यह पहली पुस्तक है जिसमें हिन्दी काव्य साहित्य को राष्ट्रीय दृष्टि से विवेचि किया गया है। विचारधाराओं के दबाव और संगठनों के नजरिये से मुक्त होकर किया गया सटीक विश्लेषण इसे छात्रों के लिए ही नहीं अध्यापकों के लिए भी उपयोगी बनाता है।
डॉ. मुरलीधरन के गहन अध्ययन और तत्त्वदर्शी दृष्टि का प्रमाण तो पुस्तक में ही है। इससे भी महत्त्वपूर्ण है उन सूक्ष्म अंतरों और कमियों का संकेत जो पीढ़ियों दशकों के अन्तराल में मिलते हैं। कवियों की विशेषताओं और कृतियों की गुणवत्ता तथा अन्तर्वस्तु को स्पष्टता के साथ रेखांकित किया गया है। कविताओं को रचनाकार की आयु के तर्क से नहीं समकालीनता और रचनात्मकता के आधार पर परीक्षित करने के कारण पुस्तक का महत्त्व बढ़ गया है। छठें, सातवें और आठवें दशक की सामान्यताओं, अनुरूपताओं और विरुद्धताओं को अत्यंत सावधानी से इसमें परिभाषित किया गया है। पुस्तक विद्वानों, छात्रों और शोधकर्ताओं के लिए निश्चय ही उपयोगी होगी। इस संग्रहणीय पुस्तक को साहित्य के अध्ययन-अध्यापन केन्द्रों पर होना ही चाहिए।
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